उर्दू के मशहूर शायर जकी अनवर की शहीदी दिवस मनाया
◆ शायर जकी अनवर उर्दू के मुंशी प्रेम चंद माने जाते थे
◆ ज़की अनवर को याद करना यानि जीने के मूल्य सीखना
◆ सांप्रदायिक दंगे आम हिन्दू या मुसलमान नही करते, क्योंकि सांप्रदायिक दंगे से तो इनका अपना घर ही उजड़ता है। इस बात को जिस दिन आम हिन्दू मुस्लमान समझ जाएगा इस दिन से सांप्रदायिक दंगे का कारोबार बंद हो जाएगा
शब्दवाणी समाचार, बुधवार 12 अप्रैल 2023, (अर्पिता) सम्पादकीय व्हाट्सप्प 8803818844, जमशेदपुर। सांप्रदायिक सद्भाव और सौहार्द्र को लिखना और जीना दो अलग अलग पहलू हैं ऐसा होना नहीं चाहिए पर ऐसा है। साहित्य पूरी दुनिया में रचा जा रहा है जिसके सहारे हम कई बार इंसानियत को महसूस करते हैं और उसे जी पाने का अभ्यास भी करते हैं। अभ्यास इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आम जीवन में मूल्यों में फांक है जिसकी वजह है अंतर्निहित द्वंद्व। स्वयं के द्वारा और सामूहिक रूप से सोचे जाने की कवायद से स्व और समाज के द्वंद से छुटकारा पाने और विवेक विकसित करने के उपाय आएंगे। बहरहाल इंसानियत वह धागा है जिस पर आप हर रंग के गाढ़ेपन और हल्केपन के शेड्स दे सकते हैं सिवाय साम्प्रदायिकता के।
इंसानियत के धागों से बुनीं खूबसूरत चादर को जीवन भर गुनते - बुनते रहे और अपने अफसानों में दर्ज़ करते रहे ज़की अनवर। आज ही के दिन 1979 को उनकी हत्या हुई जिसके कुसूरसवार हैं धर्म के श्रेष्ठताबोध में जीने वाली कट्टरपंथी जमात। यह हम सभी के लिए शर्म का बायस हमेशा बना रहेगा कि इंसानियत और प्रेम के जज़्बे को गुलज़ार करने वाले शख़्स को हमारी तुच्छ पहचान और दंभ ने हमसे छीन लिया। एक लेखक जो मध्य वर्ग से आता हो जो अपनी हत्या के एक दिन पहले जबकि साम्रदायिक तनाव मौजूद था तब भी एक अधूरी कहानी हमारे लिए छोड़ गया ,आखिर उसे क्या ज़रूरत आन पड़ी कि कट्टरपंथियों के हौसले पस्त करने अनशन की सूझी ? वो कौन से हालात थे कि धरने में इनके पीछे कोई बहुत बड़ा हुजूम साथ नही था सिर्फ गिने -चुने लोग ही थे तब भी वे अंजाम से बेखबर सांप्रदायिक सद्भाव के लिए डटे रहे, निश्चित ही वो उनके इंसान होने का दृढ़ निश्चय रहा होगा जिसके बूते वो हम सबकी स्मृति का हिस्सा हैं।
ज़की अनवर को याद करते कॉमरेड शशि ने समूचे हालात और छोटी छोटी बातों को बयां किया। सन् ' 75 से 1979 तक के वक्फे में कई बातें घटित हो रही थी, कई वाकये घट रहे थे जिसकी परिणति रही ज़की अनवर की हत्या। समाज के प्रति अपने विश्वास को अंतिम सांस तक बचाए रखने की उनकी स्पष्ट वजह यही रही होगी कि आने वाली नस्लें विश्वासघात न करें।
अपने जीवन में उन्होंने सैकड़ों कहानियां लिखी जिसमें से 300 कहानियां ट्रेस हुई हैं, यहां जमशेदपुर के अफसानानिगार अख़्तर आज़ाद का ज़िक्र ज़रूरी है क्योंकि ज़की अनवर पर उनकी एक किताब प्रकाशित हुई है।
ज़की अनवर की तमाम कहानियों में से एक कहानी चुनकर सुनाई उर्दू के शायर और जमशेदपुर इप्टा के अध्यक्ष अहमद बद्र ने l थियेटर करने वाले युवा साथी आज ज़्यादा संख्या में मौजूद थे इसलिए उन्होंने संवाद शैली वाली एक कहानी चुनीं। जब कहानी का ज़िक्र आया है तो जावेद इकबाल को भी याद किया जाना चाहिए जिन्होंने ज़की अनवर की कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया। अभी तक मात्र 15 कहानियों का अनुवाद हुआ है इस काम को आगे ले जाने की ज़रूरत है।
आज ज़की अनवर को याद करने के लिए हम लोगों के साथ उनके छोटे बेटे अनवर नाज़िश, झारखंड ह्यूमैनिटी ट्रस्ट के ख़ालिद इक़बाल, काशी साहू कॉलेज के प्राचार्य बी एन प्रसाद, प्रभात खबर जमशेदपुर के संपादक संजय मिश्रा, पथ के साथी मो. निज़ाम, छवि और पथ के युवा कलाकार साथी, पीपुल फॉर चेंज के सौविक साहा, नोरा, सुमित, इंद्रजीत, ट्रांस वूमेन एमी, लिटिल इप्टा के साथी, सफाई कर्मचारी के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाले साथी रमेश मुखी, अंब्रेला क्रियेशंस के युवा शायर संजय सोलोमन, पीपुल मूवमेंट के साथी सत्यम, अंकिता, आयुष , स्त्री मुक्ति संगठन और इप्टा की साथी अंजना, मनोरमा शामिल रहीं।
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