भारत में पहली बार पियर्सन सिंड्रोम से पीड़ित 14 माह के केन्याई शिशु का फोर्टिस गुरुग्राम में सफल उपचार
• दुनिया में अपनी तरह के दुर्लभतम रक्त विकारों में से एक पियर्सन सिंड्रोम से पीड़ित 14 माह के केन्याई शिशु का फोर्टिस गुरुग्राम में सफल उपचार
• पियर्सन सिंड्रोम अत्यंत दुर्लभ कंडीशन है जो प्रति 10 लाख की आबादी में से एक को प्रभावित करती है
• इस रक्त विकार से पीड़ित ज्यादातर शिशु एक वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहते
शब्दवाणी समाचार, शुक्रवार 15 नवम्बर 2024, सम्पादकीय व्हाट्सप्प 8803818844, नई दिल्ली। फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुरुग्राम ने अत्यंत दुर्लभ और जीवनघाती रक्त विकार – पियर्सन सिंड्रोम से पीड़ित, 14-माह के एक केन्याई शिशु का सफल उपचार कर मेडिकल की दुनिया में शानदार उपलब्धि दर्ज करायी है। यह रक्त विकार अत्यंत दुर्लभ माना जाता है और प्रत्येक 10 लाख की आबादी में केवल 1 व्यक्ति इससे पीड़ित होता है, चिकित्सा विज्ञान में अभी तक ऐसे केवल 150 मामलों का उल्लेख मिलता है। डॉ विकास दुआ, प्रिंसीपल डायरेक्टर एवं हेड, पिडियाट्रिक हेमेटोलॉजी, हेमेटो ओंकोलॉजी एंड बोन मैरो ट्रांसप्लांट, फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुरुग्राम के नेतृत्व में डॉक्टरों की टीम ने मरीज का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट और कीमोथेरेपी से इलाज किया। मरीज को उपचार के 21 दिनों के बाद स्थिर अवस्था में अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। मरीज का ओपीडी में फौलो-अप जारी है। भारत में यह अपनी तरह का पहला मामला है जिसका उल्लेख मेडिकल लिटरेचर में पियर्सन सिंड्रोम के इलाज के लिए हाफ-मैच्ड डोनर और 7वें बोन मैरो ट्रांसप्लांट के तौर पर किया गया है। केन्याई शिशु अरियाना जन्म से ही एनीमिया से पीड़ित थी जिसके चलते उसकी ग्रोथ पर काफी बुरा असर पड़ रहा था। केन्या में शिशु के इलाज के दौरान कई बार ब्लड और प्लेटलेट ट्रांसफ्यूज़न भी कराया गया था लेकिन इसके बावजूद उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। इस बीच, मरीज की हालत बिगड़ने लगी थी और जीवित रहने के लिए मरीज को हाफ मैच डोनर ट्रांसप्लांट की आवश्यकता थी। तब मरीज को इलाज के लिए फोर्टिस गुरुग्राम लाया गया। उस वक्त भी वह एनीमिया और कम प्लेटलेट्स की समस्या से जूझ रही थी।
फोर्टिस गुरुग्राम में भर्ती के बाद मरीज की बोन मैरो जांच और कुछ अन्य जेनेटिक टेस्ट भी किए गए जिनसे पियर्सन सिंड्रोम का पता चला। पियर्सन सिंड्रोम अत्यंत दुर्लभ कंडीशन है जो शरीर के अनेक अंगों, खासतौर से बोन मैरो, पैंक्रियाज़ को प्रभावित करती है और इसमें ब्लड तथा प्लेटलेट्स कम बनते हैं जिसकी वजह से मरीज को ब्लीडिंग भी होती है। साथ ही, बार-बार डायरिया, पेट दर्द, अवरुद्ध शारीरिक विकास जैसी समस्याएं भी बनी रहती हैं और मरीज जीवित नहीं रहता। इस कंडीशन की जटिलता और दुर्लभता के मद्देनज़र, इस शिशु के उपचार के लिए मल्टी-डिसीप्लीनरी एप्रोच को अपनाया गया जिसमें बेबी अरियाना की जांच पिडियाट्रिक नेफ्रोलॉजिस्ट, पिडियाट्रिक गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट, ऑप्थेल्मोलॉजिस्ट तथा ईएनटी डॉक्टरों की टीम द्वारा की गई क्योंकि यह कंडीशन शरीर के कई अंगों को प्रभावित करती है और इसकी वजह से डायरिया तथा आंखों में एब्नॉर्मल लेंस और प्यूपिल, ग्लूकोमा तथा कानों से कम सुनाई देने जैसी समस्याएं भी होती हैं। मरीज की जांच के बाद, इलाज के लिए बोन मैरो ट्रांसप्लांट को चुना गया क्योंकि यह सिंड्रोम मल्टीसिस्टम कंडीशन है और पियर्सन सिंड्रोम के उपचार के लिए केवल स्टेम सेल ट्रांसप्लांट ही मददगार हो सकता है।
चूंकि बेबी अरियाना का कोई भाई-बहन नहीं है और न ही कोई अन्य गैर-संबंधी डोनर उपलब्ध था, इसलिए मरीज की मां को ही हाफ-मैच्ड डोनर के तौर पर चुना गया। इसके बाद मरीज का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट किया गया और बेहद नियोजित तरीके से कीमोथेरेपी और काफी देखभाल सुनिश्चित की गई। ट्रांसप्लांट के बाद, मरीज को अब तक ट्रांसफ्यूज़न की जरूरत नहीं हुई है और वज़न भी बढ़ने लगा है तथा किसी किस्म की जटिलता भी नहीं हुई है। इस मामले की जानकारी देते हुए, डॉ विकास दुआ, प्रिंसीपल डायरेक्टर एवं हेड, पिडियाट्रिक हेमेटोलॉजी, हेमेटो ओंकोलॉजी एंड बोन मैरो ट्रांसप्लांट, फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुरुग्राम ने बताया यह पियर्सन सिंड्रोम का भारत में उपचार का पहला मामला है। यह काफी दुर्लभ किस्म का जेनेटिक (आनुवांशिक) विकार माना जाता है जिससे पीड़ित मरीजों के बचने की संभावना काफी कम होती है, आमतौर पर पियर्सन सिंड्रोम से ग्रस्त मरीज एक साल से अधिक जीवित नहीं रह पाते। लेकिन बेबी अरियाना का ट्रांसप्लांट हुए अब 4 महीने से अधिक बीत चुके हैं वह ठीक प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रही है। यह कंडीशन उस स्थिति में पैदा होती है जबकि डीएनए के माइटोकॉन्ड्रिया के कुछ महत्वपूर्ण भाग नहीं होते, इस वजह से कोशिकाओं में ऊर्जा उत्पादन की प्रक्रिया प्रभावित होती है। यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि सही मेडिकल एप्रोच और ट्रीटमेंट से इस कंडीशन का इलाज किया जा सकता है। पियर्सन सिंड्रोम से ग्रस्त मरीजों में बोन मैरो फेलियर होने पर हेमेटोपोएटिक स्टेम सेल ट्रांसप्लांट या बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन इलाज का विकल्प हो सकता है। ऐसे मामलों में सफलता की दर केवल 20% होती है।
यश रावत, फेसिलिटी डायरेक्टर, फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुरुग्राम ने कहा यह दुर्लभ मामला मरीज के उपचार के लिए पर्सनलाइज़्ड ट्रीटमेंट एप्रोच के महत्व को दर्शाता है, इस मामले में हमने काफी विशेषज्ञों की मदद ली और डॉ विकास दुआ के नेतृत्व में डॉक्टरों की टीम ने इलाज किया। समय पर मरीज की मेडिकल कंडीशन के अनुसार उपचार के चलते अच्छी क्लीनिकल परिणाम मिले हैं। फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट में हमारा मकसद एक ही छत के नीचे वर्ल्ड क्लास हेल्थकेयर सेवाएं उपलब्ध कराना है और हम अपने मरीजों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अस्पताल के डॉक्टरों का आभार व्यक्त करते हुए, बेबी अरियाना की मां ने कहा फोर्टिस गुरुग्राम में साफल बोन मैरो ट्रांसप्लांट से मेरी बेटी को नया जीवन मिला है। ट्रांसप्लांट के बाद उसकी हालत में सुधार हो रहा है। अपने बच्चे को तकलीफ से गुजरते हुए देखने से बढ़कर दुनिया में दूसरी कोई पीड़ा नहीं हो सकती। मैं डॉ विकास दुआ और उनकी टीम की आभारी हूं जिन्होंने कुशलतापूर्वक मेरी बच्ची का इलाज कर उसका जीवन बचाया है।
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