सनातन धर्म की रक्षा के लिए ही हुए हैं अवतार : शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद

शब्दवाणी समाचार बुधवार 20 नवंबर 2019 (आशीष निगम) मौदहा,हमीरपुर। कस्बे के बड़ी देवी मंदिर परिसर में चल रहे श्री रामकथा के दौरान मंगलवार को आचार्यचरण अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री ने कहा कि, वैदिक सनातन धर्म रक्षा के लिए ही परमात्मा एवं महापुरुषों का अवतार होता है। गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलकर सत्कर्म रूपी यज्ञ से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है। गुरुवाणी पर श्रद्धा-विश्वास से पालन करने पर भगवान भी गुरुभक्त की सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। महाराज दशरथ की गुरु वशिष्ठ जी के प्रति समर्पण के कारण ही भगवान विष्णु सेवा के लिए श्री राम के रूप में अवतरित होते हैं। रघुकुल श्रेष्ठ दशरथ एवं माता कौशिल्या ने तपस्या किया तो भगवान स्वयं श्रीराम के रूप में अवतरित हुए। कोई भी नर-नारी जब तपस्या करेगा तो वहाँ पर योग्य संतान पैदा होगी। यह प्राचीन युग का सत्य नहीं है, हर युगों का सत्य है। माता-पिता संयम रखेंगे, तपस्या करेगें, ईश्वर पर निष्ठा होगी, कर्तव्यपरायणता होगी, धर्म-गुरु-शास्त्र में श्रद्धा होगी तो उसकी संतान दैवी जरूर पैदा होगी। आज के परिवेश में दैवी संतानों की अधिक आवश्यकता है। उन्हीं के द्वारा धर्म का रक्षण होता है।



वाशनावशवर्ती होकर मनुष्य जब कर्म करता है तो वह आसुरी सम्पदा का परिचायक है एवं शास्त्रानुसार जो कर्म करता है वह दैवी सम्पदा का परिचायक है। अस्तु, दैवी सम्पदा से जीवनयापन करने वाले माता-पिता के यहाँ स्वयं भगवान एवं महापुरुष जन्म लेते हैं।
महाराजश्री ने आगे बताया कि प्रभु श्रीराम के योगमाया माँ सीता को शाश्वत शक्ति का आधार माना गया है। सीता को प्रकृति का स्वरूप बताया गया है। सीता शब्द का अर्थ अक्षरब्रह्म की शक्ति के रूप में हुआ है। यह नाम साक्षात् 'योगमाया' का है। सीता को भगवान श्रीराम का सान्निध्य प्राप्त है, जिसके कारण वे विश्व कल्याणकारी हैं। सीता, क्रिया-शक्ति, इच्छा-शक्ति और ज्ञान-शक्ति तीनों रूपों में प्रकट होती हैं। परमात्मा की क्रिया-शक्ति-रूपा सीता परब्रह्म परमात्मा के मुख से 'नाद' रूप में प्रकट हुई है। वह प्रणव यानी ओंकार की वाचक हैं। उनका नाम ही प्रणव नाद, ओंकार स्वरूप है। परा प्रकृति एवं महामाया भी वही हैं।और वही आदिशक्ति भी है। सीता शब्द का पहला अक्षर "सी" परम सत्य से प्रवाहित हुआ है और "ता" वाक की अधिष्ठात्री वाग्देवी स्वयं हैं। उन्हीं से समस्त वेद प्रवाहित हुए हैं। सीता पति राम से समस्त ब्रह्मांड, संसार तथा सृष्टि उत्पन्न हुए हैं जिन्हें ईश्वर की शक्ति 'सीता' धारण करतीं हैं। सीता जी भूमिरूप है। भूमि से उत्पन हुई है, इसलिए भूमात्मजा भी कही जाती हैं। सूर्य, अग्नि एवं चंद्रमा का प्रकाश सीता जी का 'नील स्वरूप' है। चंद्रमा की किरणें विविध औषधियों को रोग प्रतिकारक गुण प्रदान करतीं हैं। ये चन्द्र किरणें अमृतदायिनी सीता का प्राणदायी और आरोग्य वर्धक प्रसाद है वे ही हर औषधि की प्राण तत्त्व हैं।
    पूज्य शंकराचार्य जी ने बताया कि, कर्मयोगी के जीवन में मानसिक अनुशासन का बहुत अधिक महत्व है। मन तथा शरीर का पारस्परिक संबंध है। मन के चिंतन का शरीर पर तथा शरीर के स्वास्थ्य का मन पर प्रभाव पड़ता है। मन के सुखी अथवा दुःखी होने पर शरीर स्वस्थ अथवा शिथिल हो जाता है तथा शरीर के स्वस्थ अथवा अस्वस्थ होने पर मन प्रसन्न अथवा उदास हो जाता है, किन्तु वास्तव में मन शरीर पर शासन करता है तथा शरीर पर मन का ही प्रभुत्व होता है। मानसिक अनुशासन से अर्थात मन को संयत एवं नियंत्रित करने से शरीर को नियंत्रित करना संभव होता है। कर्मयोगी अपने मन एवं इंद्रियों को संयत एवं नियंत्रित रखकर ही प्रभोलनों पर विजय प्राप्त कर सकता है तथा कर्तव्य मार्ग में दृढ़ रह सकता है।इस कार्यक्रम का आयोजन नारायण सेवा समिति एवं श्री राम उत्सव समिति द्वारा किया गया है। जिसमें समिति के समस्त पदाधिकारीगण एवं अन्य लोगों ने कथा लाभ प्राप्त किया।



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