कोविड-19 : अवसाद से समाधान तक

        


शब्दवाणी समाचार, मंगलवार  8 सितम्बर 2020, (आलेख डॉ. हेमलता एस मोहन, शिक्षाविद एवं संस्कृति संवाहक) नई दिल्ली। इस समय दुनिया के ज़्यादातर देशों में कोरोना वायरस का प्रकोप फैला हुआ है। करोड़ों लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं और लाखों अपनी जान गंवा चुके हैं। कोरोना के संक्रमण से बचने के लिए अनेक देशों में लॉकडाउन और अनलॉकडाउन की स्थिति बनी हुई है। कोविड-19 ने आज पूरे मानव जाति को प्रभावित किया है। ऐसी स्थिति में लोग विभिन्न प्रकार की मानसिक समस्याओं के शिकार हो रहे हैं। 
ऐसा नहीं है कि इससे पहले कोई महामारी नहीं थी। प्लेग, हैजा, स्पेनिश फ्लू, एशियाई फ्लू, सार्स (SARS), मर्स (MERS) एवं इ-बोला (Ebola) जैसी महामारी ने पूर्व में भी वैश्विक स्तर पर लोगों को प्रभावित किया है । लेकिन     कोविड-19 की महामारी बिल्कुल अलग पैमाने पर है। इसने पूरी दुनिया में दहशत पैदा कर दी है। वैश्विक स्तर पर निरंतर किये जा रहे प्रयासों के बाद भी कोविड-19 का सटीक उपचार उपलब्ध नहीं होने से लोगों के मन में निरंतर डर की भावना बढ़ रही है, जिससे उनका मानसिक स्वास्थ्य गंभीर रूप से बाधित हो रहा है। 



यह साफ है कि संक्रामक रोग सभी लोगों पर एक गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता हैं, उन लोगों पर भी जो वायरस से प्रभावित नहीं हैं। इन बीमारियों को लेकर हमारी प्रतिक्रिया मेडिकल ज्ञान पर आधारित न होकर हमारी सामाजिक समझ से भी संचालित होती है। इंटरनेट के दौर में हम ज्यादातर सूचनाएं ऑनलाइन हासिल करते हैं। यह एक व्यवहारवादी परिवर्तन है, जिसने स्वास्थ्य विषयों पर लोगों के आपसी संवाद को क्रांतिकारी तरीके से बदल कर रख दिया है।
मिसाल के तौर पर, ट्विटर पर इबोला और स्वाइन फ्लू के प्रकोप का विश्लेषण करने के लिए किये गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि ट्विटर यूजर्स ने इन दोनों बीमारियों को लेकर गहरे डर का इजहार किया। समाचार माध्यमों के आलेखों और सोशल मीडिया पोस्ट्स में जानकारी के साथ डर फैलने का खतरा भी होता है। हालांकि महामारी के फैलने के दौरान इन प्रतिक्रियाओं को उस समय की स्थिति के हिसाब से आनुपातिक माना जाता है और उन्हें जागरूकता फैलाने का माध्यम माना गया।
ये माना जाता है कि डर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों होता है बस समझने के तरीके का फर्क है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत कई प्रमाणित स्वास्थ्य संगठनों ने यह सिफारिश की है कि लोग तनाव और बेचैनी का सबब बननेवाली फर्जी जानकारियों से बचने के लिए विश्वसनीय स्वास्थ्य पेशेवरों से ही जानकारी और सलाह लें।
किशोरों की मन:स्थिति समझने की जरूरत
कोरोना के कारण किशोरों एवं युवाओं में अपने भविष्य को लेकर अनिश्चितिता में काफी बढ़ोतरी भी हुयी है, जिसके कारण युवाओं में मानसिक अवसाद, निरंतर चिंता एवं गंभीर हालातों में आत्महत्या तक की नौबत आ रही है। इसके लिए यह जरुरी है कि माता-पिता किशोरों की मानसिक स्थिति को समझें एवं संक्रमण के कारण होने वाले चुनौतियों का सामना करने में उनका सहयोग करें। लंबे समय से स्कूल एवं कॉलेज का बंद होना, दोस्तों से संपर्क खोना, परीक्षाओं के बारे में अनिश्चितता और उनके करियर विकल्पों पर प्रभाव एवं युवाओं के सामने अपनी नौकरी बचाने के दबाब के कारण उनमें अकेलापन, उदासी, आक्रामकता और चिड़चिड़ापन की भावनाएं पैदा हो सकती हैं। 
माता-पिता अवसाद से बचाएं
माता-पिता को किशोरों एवं युवाओं की बातों को सुनकर, उनकी कठिनाइयों को स्वीकार कर, उनकी शंकाओं को दूर कर एवं उन्हें आश्वस्त कर समस्याओं को हल करने में भावनात्मक सहायता करना चाहिए। ऐसे दौर में कोरोना को लेकर कई भ्रामक जानकारियां भी फैलाई जा रही है। इसलिए माता-पिता किशोरों को विश्वसनीय स्रोतों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, आईसीएमआर. सीडीसी आदि से जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करें ताकि उन्हें सही जानकारी प्राप्त हो सके।
अवसाद में संगीत 
इसके साथ ही मनोवैज्ञानिक कहते है कि अवसाद के दौर में संगीत दवा का काम करता है, संगीत हर किसी को आनंद की अनुभूति कराता है। इसके साथ ही शास्त्रीय संगीत कई रोग के निवारण में सहायक सिद्ध होता है। सात सुरों में बंधा संगीत मन को शांति प्रदान करता है। अभी लॉकडाउन औऱ अनलॉकडाउन के दौरान शहर में लोग छोटे से जगह में कैद होकर रह गए। इस दौरान कई तरह के मानसिक अवसाद से लोग ग्रसित हो गए। इससे मुक्ति पाने के लिए घर में रहकर संगीत सुना जा सकता है। राग दरबारी कान्हड़ा, तनाव दूर करने में सहायक है। राग भैरवी, ब्लड प्रेशर और तंत्रिका तंत्र को नियंत्रित करता है। राग तोड़ी, अस्थमा और सांस की परेशानी में मददगार साबित होता है । इसी प्रकार अहीर भैरव, सिरदर्द और शिवरंजनी ऊर्जा का संचार करता है। 
मनोवैज्ञानिकों का रिर्सच आधारित दावा है कि संगीत, अवसाद यानि डिप्रेशन में दिमाग को सकारात्मक उर्जा प्रदान करता है। यह व्यक्ति के रचनात्मकता या संज्ञानात्मक कार्य को बढ़ाता है। दिमाग के दो हिस्से या हेमिस्फेयर्स हैं उत्तरी और दक्षिणी। संगीत को दोनों को जोड़ता है या समन्वय में सहायक बनता है। संगीत दिमाग के कॉर्पस कॉलोसम पर प्रभाव डालता है। कॉलोसम दरअसल नर्वस फाइवर है। संगीत डोपामिन और ऑक्सीटॉक्सिन हार्मोन को नियंत्रित करता है। ऑक्सीटॉक्सिन व्यक्ति के विश्वास और नैतिकता को प्रेरित करता है। विशेषज्ञ कहते है कि  संगीत व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार को बढ़ाता है। 
अवसाद से अध्यात्म तक
वहीं अध्यात्मिक ज्ञान के आधार पर आत्मचिंतन एवं परमात्मा का ध्यान करने की एक मानसिक, बौद्धिक एवं भावनात्मक प्रक्रिया है। इसे कोई भी,  कहीं पर और किसी भी सहज मुद्रा में कर सकता है। किसी शांतिपूर्ण स्थान चाहे वह शयन कक्ष हो, बगीचा हो या घर की छत हो,  वहां कुर्सी पर या फ़र्श पर आराम से बैठ कर ध्यान कर सकते हैं। सिर्फ यह ध्यान रखना है कि आलस या नींद नहीं आए क्योंकि यह कोई शारीरिक योगासन या व्यायाम नहीं है।
ध्यान के दौरान यह महसूस करें कि आप आत्मा, परमात्मा के स्नेह और शक्ति की छत्र छाया में स्वस्थ एवं सुरक्षित हैं। आपका परिवार, परिवेश, समाज,  देश और समग्र विश्व इस ‘आत्मा-परमात्मा योग’ की शक्ति से शुद्ध, स्वच्छ, स्वस्थ एवं सुख-शांतिमय बनते जा रहे हैं। यह विचार लायें कि कोरोना महामारी जैसे आई थी, वैसे ही जा रही है। संसार की विकट परिस्थिति स्वस्थ एवं सुंदर स्थिति में परिवर्तित होती जा रही है। 
अंत में, सावधानी के साथ  मास्क का प्रयोग हमेशा करें। जितना हो सके, सामाजिक दूरी के साथ भावनात्मक लगाव बनाए रखें। अपने अंदर के कलाकार को जगाएं। परिवार वालों के साथ अच्छा समय व्यतीत करें।



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