विशेषज्ञों ने लॉन्‍ग कोविड का इलाज और तकनीक की भूमिका पर किया चर्चा

शब्दवाणी समाचार, शुक्रवार 10 जून 2022, नई दिल्ली। कोविड-19 और ओमिक्रॉन से ‘सफलतापूर्वक’ ठीक होने के बाद लोगों के शरीर में स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं पनपने की संभावना काफी बढ़ गई है। यही कारण है कि भारत में फेफड़ों के रोग के शीर्ष विशेषज्ञ (पल्‍मोनॉ‍लजिस्‍ट) बीमारी ठीक होने के बाद के लक्षणों को लॉन्‍ग कोविड में बदलते हुए देखकर चिंतित हैं। नोएडा के मेट्रो अस्पताल में मेट्रो रेस्पिटरी सेंटर ऑफ पल्मोनोलॉजी एंड स्लीप मेडिसिन के वरिष्ठ सलाहकार और चेयरमैन डॉ. दीपक तलवार ने कहा, “हमारे अस्पताल की ओपीडी रोजाना 50 ऐसे मरीजों से भरी रहती है, जो ट्युबरकुलोसिस या फंगल इंफेक्‍शन से ठीक होने में सफल हो गए हैं, लेकिन उनके शरीर में इससे संबंधित परेशानी बनी है। इनमें से करीब 20 फीसदी मामलों में मरीजों को काफी गंभीर परेशानी हो जाती है, जिसे दूर करना डॉक्टरों के लिए काफी मुश्किल हो जाता है। अक्सर मरीज सोचते हैं कि यह लॉन्ग कोविड है और इसे नजरअंदाज कर देते हैं।

लॉन्ग कोविड वह स्थिति है कि जब कोविड-19 से ठीक हो चुके मरीज अपनी सेहत में अस्थायी रूप से परेशानियों का अनुभव करते हैं, जैसे उन्हें सांस लेने में तकलीफ होती है। वह किसी चीज को काफी मुश्किल से नोटिस कर पाते हैं। उनके दिमाग में भ्रम की स्थिति बनी रहती है। भूलने की आदत हो जाती है। किसी काम में मन नहीं लगता और मस्तिष्क तरह-तरह के विचारों से भरा रहता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 से ठीक होने वाले मरीजों के लिए लॉन्ग कोविड की समय अवधि तीन से 9 महोंनों तक रखी है। लोग यह अनुमान लगा लेते हैं कि कोरोना के यह लक्षण अपने आप ठीक हो जाएंगे। उन्हें इसका इलाज कराने या डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं है।   

हालाकि डॉ. तलवार के अनुसार, जिन्हें फेफड़ों के रोग के विशेषज्ञ के रूप में 30 से ज्यादा वर्ष का अनुभव है, ने बताया, “लोगों की ऐसी सोच आदर्श स्थिति से काफी दूर हैऔर कभी-कभी मरीजों के लिए जानलेवा साबित होती है। मरीजों की लापरवाही के कारण लॉन्ग कोविड के 30 फीसदी मामले गंभीर बन जाते हैं। पिछले साल लंग इंडिया में प्रकाशित अध्ययन में देश में उभर रहे कोविड के बाद होने वाले सिंड्रोम या लॉन्‍ग कोविड की समानांतर महामारी की चेतावनी दी थी। रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 से ठीक हुए 88 फीसदी मरीजों में यह सिंड्रोम हो सकता है। भारत में महामारी के 4.3 करोड़ मामलो में से 4.2 मरीज ठीक हो चुके हैं। यहां कोविड-19 से मरीजों के ठीक होने की दर 90 फीसदी से अधिक है।

डॉ. तलवार ने कहा, “हालांकि ओमिक्रॉन से ठीक हुए मरीजों में भी रोगों का मुकाबला करने की ताकत में कमी आ जाती है, जिसे कोविड-19 के पिछले वैरिएंट की तुलना में कम घातक माना गया है। इससे भविष्य में कोरोना से ठीक हुए मरीजों के अन्य बीमारियों की चपेट में आने का खतरा पहले से ज्यादा हो जाता है, उनकी इम्‍युनिटी भी कम हो सकती है। इसलिए जरूरी है कि कोई भी परेशानी होने पर मरीजों को डॉक्टरों के पास जाकर अपनी जांच करानी चाहिए। उन्हें इन लक्षणों के अपने आप खत्म होने का इंतजार नहीं करना चाहिए।

मल्टीसिस्टम डिस्‍ऑर्डर

कोविड-19 और इसके वैरिएंट्स को मैनेज करना काफी मुश्किल इसलिए हो जाता है क्योंकि इस रोग का स्‍वभाव काफी जटिल है। यह अलग-अलग तरीकों से शरीर पर हमला करता है, जिनमें किसी के शरीर पर पर हल्का प्रभाव पड़ता है और किसी के लिए यह जानलेवा साबित होता है। कोविड-19 के मरीजों को केवल फेफड़ों की बीमारी नहीं होती। उन्हें कई तरह की दूसरी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो जाती हैं, जिसमें असामान्य रूप से रक्त के थक्के जमने लगते हैं, दिल के साथ दिमाग और मांसपेशियों से जुड़ी परेशानी या ऐसे रोग उभरते हैं, जो जठरांत्र के मार्ग को प्रभावित कर सकते हैं, जिसमें उलटी से लेकर डायरिया तक रोग होते हैं। 

डॉ. तलवार ने कहा, “सांस संबंधी रोगों के मरीजों की तुलना में कोविड-19 के मरीजों में यह सारी बीमारियां एक साथ काम करती हैं। इससे रोग काफी तेजी से फैलता है और कई बार ऐसी हालत आ जाती है कि बिना वेंटिलेटर के इस तरह के मरीजों की देखभाल करना असंभव हो जाता है। दो साल के अंत तक कोविड से ठीक हो चुके मरीजों को उन रोगियों के फेफड़ों की तुलना में ज्यादा नुकसान पहुंचेगा, जो वायरल निमोनिया से ठीक हुए हैं।

मेडिकल टेक्नोलॉजी का विस्तार

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के कोविड-19 को महामारी घोषित करने के तुरंत बाद, मार्च 2020 में अमेरिकन थोरेसिक सोसाइटी और यूरोपियन रेस्पिटरी सोसाइटी ने एक एडवाइजरी जारी कर डॉक्टरों से फेफड़ों की कार्यप्रणाली संबंधित जांच सीमित करने के लिए कहा था, जो फेफड़ों के रोग का पता लगाने के लिए बहुत जरूरी है। क्योंकि यह एक मरीज से दूसरे मरीज में संक्रमण का संभावित रास्ता हो सकता है। सीटी स्कैन का प्रयोग भी केवल कोविड-19  मरीजों की जांच तक ही सीमित कर दिया गया था। इस बीच प्रतिबंधों ने डॉक्टरों, पैरामेडिकल स्टाफ और छात्रों के बीच दो नई टेक्नोलॉजी, वायरे इंपल्स ऑसिलोमेट्री और स्पिरोमेट्री की लोकप्रियता और विकास को और बढ़ा दिया। स्पाइरोमेट्री और  वायरे इंपल्स ऑसिलोमेट्री वह उपकरण है, जिससे फेफड़ों की कार्यप्रणाली  की जांच की जाती है और यह निश्चित किया जाता है कि कहीं मरीजों के फेफड़ों में हवा के प्रवाह में कहीं ब्लॉकेज तो नहीं है। 

डॉ. तलवार ने कहा, “वायरे की तकनीक की लोकप्रियता का एक कारण यह है कि इससे मरीजों का टेस्ट संक्रमण फैलने की आशंका या जोखिम के बिना किया जाता है। इससे परंपरागत रूप से फेफड़ों की जांच की अपेक्षा मरीजों की जांच में काफी कम, केवल पांच मिनट, का समय लगता है। इससे हमारा ज्यादा से ज्यादा मरीजों को  यह उपकरण उपलब्ध कराना संभव हो पाया है। महामारी से पहले भारत में कोई इस तरह की तकनीक के बड़े पैमाने पर प्रयोग होने की कल्पना भी नहीं कर सकता था।

जेनवर्क्स हेल्थ के एमडी और सीईओ एस. गणेश प्रसाद ने कहा, “जेनवर्क्स में, हम लगातार यह प्रयास कर रहे हैं कि विश्व की जो श्रेष्ठ कंपनियां भारत में मौजूद नहीं है, उनकी बेहतरीन तकनीक को भारत में लाया जा सके। हम अपने बेहतरीन वितरण नेटवर्क से जांच के बेहतरीन उपकरण भारत में उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे भारत में जल्द ही बीमारी का पता लगाकर उसका समय से इलाज किया जा सके। गणेश प्रसाद ने कहा हमने महामारी से पहले ही वायरे की पहचान कर पहचान कर ली थी क्‍योंकि यह अत्‍याधुनिक तकनीक और लंग डायग्‍नोस्टिक पोर्टफोलियो की संपूर्ण श्रृंखला मुहैया कराती है। इसमें एफडीए से मान्यता प्राप्त स्पाइरोमीटर से लेकर उच्च तकनीक के बॉडी प्लेथिस्मोग्राफ उपकरण शामिल हैं। महामारी के दौरान हम इसका इस्तेमाल बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों में बढ़ाने में कामयाब रहे हैं।

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